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प्रवासी मज़दूर नहीं बल्कि कुशल कामगार कहिये !

  • सतीश साह

कोरोना की वैश्विक महामारी और उससे उत्पन्न बेरोजगारी और भविष्य की अनिश्चितताओं के बीच करोड़ो की संख्या में मजदूरों का पलायन एक दुखद अनुभव रहा है। पिछले तीन महीनों में प्रवासी मजदूरों का एक बड़ा वर्ग अपने और अपने परिवारों की जान जोखिम में डालकर हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर अपने गांवों की ओर चल पड़े। सवाल यह भी उठता है कि जिन शहरों को महानगर बनाने की दिशा में इन मजदूरों ने अपनी जिंदगी खपा दी, उन महानगरों ने भी इन मजदूरों के पलायन की चिंता नहीं की और जब ये मजदूर अपनी जान को जोखिम में डालकर अपने गांव, अपने प्रदेश ओर अपनों के बीच पहुंचे तब भी इन पर कोरोना फैलाने का आरोप लगा और इनको खलनायक बताया गया। पिछले दिनों जब ये मजदूर अपने गांव को पहुंचे तो प्रशासन द्वारा इनके क्वारंटीन होने की व्यवस्था की गई जो बजबजाती अव्यवस्थाओं और असुविधाओं की जीती-जागती स्मारक बन कर सामने आई। कोरोना महामारी और देशव्यापी लॉकडाउन के बाद रेलगाड़ियाँ, हवाई सेवा, सड़क परिवहन लगभग सभी पब्लिक परिवहन व्यवस्था बंद कर दी गई थी। लॉकडाउन के कारण सभी प्रकार के प्रतिष्ठान और उद्योग धंधे बंद हो गये थे। मजदूरों में एक प्रकार की बैचेनी थी कि अब वे क्या करें ? संबंधित शहरों और महानगरों के प्रशासनिक संस्थाओं ने भी अपने अपर्याप्त संसाधनों के बल पर जो कुछ कर सकते थे, उसको करने का भरसक प्रयास किया, किंतु वो भी अपर्याप्त साबित हुआ। कुछ ही दिनों के लॉकडाउन के बाद ऐसे मजदूर जो रोज कमाते-खाते थे उसका एक बड़ा जत्था सड़कों पर निकल आया, उसके बाद मजदूरों और प्रवासियों का प्रवास का सिलसिला थमा नहीं। गांवों में जाकर शायद कोरोना के कहर से तो बच जाये किंतु जीवन के पहिये को पुनः ढकेलने में उन प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को काफी समय लगेगा। मजदूर जिस भी शहर में थे वहां अपने परिवार के साथ जीवन का एक नया सफर शुरू कर चुके थे। भले ही किराये के मकानों में रहते रहें हो, किंतु घर की सभी छोटी-बड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने का लगातार प्रयास कर रहे थे। वे उनके बच्चों को किसी निजी, निगम या शासकीय विद्यालयों में पढ़ा रहे थे। ताकि दिल्ली, मुम्बई, पुणे जैसे शहरों में पढ़ाकर वे अपने बच्चों को सुनहरे भविष्य की तालीम दे सके, किंतु समय को कुछ और ही मंजूर था। अब लाखों-करोड़ों की संख्या में हुनरमंद मजदूर गांवों में हैं चाहे वे कुशल फेब्रिकेटरर्स हों, वेल्डर हों, कपड़ा मिलो में काम करने वाले मजदूर हों, प्लास्टिक से विभिन्न प्रकार के सामान बनाने वाले हों, मकानों में काम करने वाले राजमिस्त्री हों या छोटे-मोटे उद्योगों में काम करने वाले मजदूर हों। सभी मजदूर और कुशल कामगार हमारे-आपके साथ हैं। जरूरत है कि स्थानीय स्तर पर न केवल सरकार बल्कि स्वावलंबन की दिशा में कार्य करने वाले लोग सामने आकर इन मजदूरों और कुशल कामगारों के सहयोग से रोजगारोन्मुखी क्रियाकलाप शुरू करें। जिला प्रशासन स्तर पर भी ऐसे कुशल कामगारों और मजदूरों को चिन्हित किया जाये और उनसे जुड़े स्टार्टअप्स को आमंत्रित किया जाये ताकि वे उन मजदूरों को साथ लेकर अपने कार्य शुरू कर सके। ऐसे छोटे-छोटे उद्योगों को कई प्रकार की शुरूआती समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, किंतु शासन स्तर पर थोड़ा पहल करने की आवश्यकता है। हम ऐसा मानते है कि भारत, गांवों में बसता है और यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का इससे बेहतर समय हमारे  पास फिर कभी नहीं होगा। लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद भी अब तक देश के ग्रामीण क्षेत्रों से एक भी भुखमरी का मामला सामने नहीं आया, इसका सीधा मतलब है कि गांवों में अन्न-जल की कमी तो नहीं है, किंतु फिर भी हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं हो रहा है उसका मुख्य कारण है गांवों से युवाओं का तेजी से पलायन। हमारे यहां संपूर्ण आर्थिक व्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र विगत कई दशक से महज कच्चे माल के स्त्रोत बन कर रह गये हैं। हमारी गांवों की पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था जिसमें कृषि, हस्तशिल्प, लघु-कुटीर उद्योगों पर निर्भर थी, वे अब औद्योगिकीकरण, शहरीकरण तथा वैश्वीकरण के आगमन के साथ समाप्त होती चली गई। महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। वे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता, स्वशासन की वकालत किया करते थे। किंतु काल के चक्र में फंसकर ग्रामीण-शहरी, अमीरी-गरीबी के बीच का अंतर व्यापक रूप से फैलते हुए एक बड़ी खाई बन गई है। उस व्यापक खाई को पाटने का सबसे बेहतर समय है यह। बड़े-बड़े शहरों की क्रीमी और कुशल कामगारों का एक बड़ा जत्था आपके सामने है। जो लोग भी औद्योगिक या व्यवसायिक दृष्टि से कुछ प्रारंभ करने की सोच रखते हैं उन महानुभावों के लिये यह एक स्वर्णिम मौका है। स्वर्णिम मौका इसलिये क्योंकि जिस भी व्यवसाय को शुरू करने का विचार करें, उससे जुड़े ग्रामीण परिवेश के वे लोग जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं उनके स्वावलंबन की दिशा में आगे बढ़ने से न केवल अपने आसपास के ऐसे कुशल कामगारों को रोजगार दे सकते हैं बल्कि गांवों की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करने की दिशा में बेहतर पहल कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सरकार के द्वारा भी आत्मनिर्भर भारत पर बल दिया जा रहा है। लेकिन ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक बेहतर और अविलंब एक नीति बनानी होगी जो आत्मनिर्भरता की संकल्पनाओं को निर्धारित कर सके। भारत विविधताओं से भरा देश है। हर जिले, हर पंचायत स्तर तक विविधताओं के आधार पर उपलब्ध संसाधन और उसके उपयोग की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है। कृषि आधारित क्षेत्रों में कृषि से संबंधित उद्योग-धंधे, उनका उपयोग, उसके भंडारण आदि की व्यवस्था पर पुनः विचार किये जाने की आवश्यकता है। गांवों में पूर्व में सामाजिक और जातिगत कुटीर उद्योगों को फिर से बढ़ावा देना होगा, जो पिछले कुछ वर्षों में लगातार विलुप्त होती चली गई। उन विलुप्त होती परिस्थितियों को वापस मुख्य धारा से जोड़ना होगा। तभी व्यक्ति से समाज, समाज से गांव और भारत का सर्वांगीण विकास संभव है। हमें पलायनवादी प्रवृत्तियों को समाज से हटाने की आवश्यकता है। आखिर ग्रामीणों में पलायन का बड़ा कारण उनके रोजगार का ही है तो क्या गांव में ऐसी रोजगारोन्मुखी परिस्थितियों को पैदा नहीं किया जा सकता ? क्योंकि जनता होने के नाते हमारी प्राथमिकता कभी भी इस प्रकार की रही नहीं। हम अपने राजनेताओं को चुनने के इस क्रम में अपनी मूलभूत आवश्यकताओं और प्राथमिकता को पीछे छोड़ते चले गये। ग्रामीण युवाओं को भी चाहिये कि वे अपनी प्राथमिकतायें तय करें, वे सरकार और शासन से माँग करें कि उनके योग्यता के आधार पर उन्हें आस-पास ही रोज़गार की व्यवस्था की जायें । अपने पूर्वजों के कुटीर उद्योगों को आधुनिक और तकनीकी तरीक़े से पुनः शुरू करने का अच्छा समय है ।

(लेखक के निजी विचार हैं)

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