अनुपूरक न्यूज एजेंसी, लखनऊ। देवेंद्र सिंह व अन्य बनाम पंजाब सरकार व अन्य के वाद में सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय संविधान पीठ के 6-1 के बहुमत से 1 अगस्त 2024 को आए फैसले में कहा गया है कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में राज्य सरकारें उप वर्गीकरण कर सकती हैं। बेहतर होता उच्चतम न्यायालय आंकड़ों और तथ्यों को जुटा कर ही राज्यों को अनुसूचित जाति व जनजाति में उप वर्गीकरण का अधिकार देती। ऐसे संवैधानिक विषयों पर संसद को ही फैसला लेना चाहिए था। क्योंकि लंबे समय से इस विषय पर विभिन्न राज्यों में सवाल उठ रहे थे। यह बाते आज प्रेस क्लब में आयोजित पत्रकार वार्ता में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य राजेश सचान, प्रदेश महासचिव डाक्टर बृज बिहारी और प्रदेश संगठन महासचिव दिनकर कपूर ने कही। वक्ताओं ने कहा कि अनुसूचित जाति व जनजाति में जो पिछड़ी उपजातियां हैं, इनके प्रतिनिधित्व का सवाल हल करने के लिए यह जरूरी है कि उनकी शैक्षिक व सामाजिक स्थितियों में बड़ा बदलाव हो। महज उप वर्गीकरण से इनके प्रतिनिधित्व का सवाल हल नहीं हो सकता। अभी तक प्राप्त आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि आरक्षित पद खासकर उच्च श्रेणी के पद रिक्त रह जाते हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति के समग्र विकास के लिए यदि सरकारें गंभीर होतीं तो अभी वर्गीकरण की जरूरत ही न पड़ती। एससी-एसटी सब प्लान में बजट बढ़ाने और निचले स्तर तक लागू करने की मांग आइपीएफ द्वारा की गई। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में यह बात स्पष्ट तौर पर कही गई है कि संविधान के अनुच्छेद 341 व 342 के द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की राष्ट्रपति की सूची में जिन जातियों को शामिल किया गया है उसमे राज्य सरकारों द्वारा कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। संविधान में अनुसूचित जाति को जो एक समूह (होमोजीनस) वर्ग के बतौर चिंहित किया गया है, वह सही है क्योंकि अभी भी यह जातियां जिस भी स्तर की हों उन्हें सामूहिक रूप से छुआ-छूत के दंश को झेलना पड़ता है और आदिवासी समाज भी अलगाव का शिकार रहता है। आइपीएफ नेताओं ने केंद्र सरकार से मांग की कि निजी क्षेत्र, ज्यूडिशियरी और मीडिया में अनुसूचित जाति व जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करे। योग्य व्यक्ति की अनुपलब्धता (एनएफएस) जैसे क्लाज को हटाया जाए और आरक्षित पदों को रिक्त न रखा जाए। इस संदर्भ में आइपीएफ का यह भी मानना है कि जब अनुसूचित जाति और जनजाति के पद रिक्त ही रह जाते हैं तब उनके बीच से क्रीमी लेयर को हटाने की बात ही बेईमानी है। इसलिए यह जरूरी है कि केंद्र सरकार जाति जनगणना कराए उसमें यह भी प्रावधान हो कि सरकारी नौकरियों, निजी क्षेत्र और अन्य संस्थानों में विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व कितना है। आइपीएफ नेताओं ने कहा कि देश इस समय गहरे आर्थिक-सामाजिक संकट के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है। कारपोरेट के मुनाफा के लिए केंद्र सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों पर कटौती जारी रखे हुए है। लंबे संघर्षों के बाद मजदूरों को 8 घंटे काम करने के अधिकार को हटा कर अधिकांश सरकारें 12 से 14 घंटे काम कराने के लिए कानून बना कर लागू कर रही हैं। लोकतांत्रिक अधिकारों पर बराबर हमले हो रहे हैं। कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ सामाजिक विखंडन में लगा हुआ है और हर तरह के सामाजिक आंदोलन को कमजोर करना चाहता है। सामाजिक न्याय की ताकतों को भी यह समझना होगा और खुले छिपे तौर पर इन ताकतों को सहयोग करना उन्हें बंद करना चाहिए। सामाजिक न्याय की भी लड़ाई सीढ़ीनुमा (ग्रेडेड असमानता) समाज के विरुद्ध स्वतंत्रता, बंधुत्व व समता के मूल्यों पर आधारित समाज बनाने की लड़ाई का हिस्सा है और उन्हें बड़े लोकतांत्रिक आंदोलन के साथ एकताबद्ध होना चाहिए। आइपीएफ ने बड़े पूंजी घरानों व उच्च अमीरों की सम्पत्ति पर समुचित टैक्स लगाने, शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार की गारंटी करने, सरकारी विभागों में खाली पदों को तत्काल भरने और हर व्यक्ति की सम्मानजनक जिंदगी को सुनिश्चित करने के सवालों पर युवा मंच द्वारा चलाए जा रहे रोजगार अधिकार अभियान का समर्थन किया। यह अभियान प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी समेत प्रदेश के कई हिस्सों और पटना में चल रहा है। दक्षिण भारत के कर्नाटक, तमिलनाडू में सम्पर्क किया गया है और दिल्ली में युवा मंच की टीम ने जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, मुखर्जी नगर, राजेन्द्रनगर में विगत दिनों अभियान चलाया है। आइपीएफ ने इस अभियान में शामिल होने की आम नागरिकों से अपील भी की। पत्रकार वार्ता में एडवोकेट कमलेश सिंह, अमृता, आकाश, श्याम कुमार वर्मा आदि लोग उपस्थित रहे।
एससी-एसटी के उप वर्गीकरण जैसे संवैधानिक विषयों पर संसद को लेना चाहिए था फैसला: ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
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