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हल्द्वानी बस अड्डे के निर्माण मामले में त्रिवेंद्र सरकार फंसी, नैनीताल हाईकोर्ट ने मांगा जवाब

उत्तराखंड के हल्द्वानी में अंतरराज्यीय बस अड्डा के निर्माण के मामले में राज्य सरकार बुरी तरह फंस गई है। उच्च न्यायालय की ओर से प्रदेश सरकार को अंतिम मौका देते हुए बस अड्डे को गौलापार से अन्यत्र स्थानांतरित करने के मामले में जवाब देने को कहा है। अदालत ने सरकार से पूछा है कि वह तीन सप्ताह के अंदर बताए की गौलापार से बस अड्डा स्थानांतरित करने के लिए कौन से कारण मौजूद हैं।

हल्द्वानी के गौलापार निवासी रवि शंकर जोशी की ओर से शुक्रवार को दायर जनहित याचिका पर कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रवि कुमार मलिमथ एवं न्यायमूर्ति रवींद्र पैठाणी की युगल पीठ में सुनवाई हुई। याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि सरकार ने बिना उचित कारण के गौलापार में बनाए जाने वाले अंतरराज्यीय बस अड्डे को हल्द्वानी के तीन पानी क्षेत्र में स्थानांतरित करने का निर्णय ले लिया है।

याचिकाकर्ता की ओर से यह भी कहा गया सरकार अभी तक गौलापार में बनाए जाने वाले बस अड्डे पर 11 कराड़ रुपये खर्च कर चुकी है जबकि इसके लिए लगभग 2625 पेड़ों की बलि दी जा चुकी है। याचिकाकर्ता की ओर से आगे कहा गया किस वर्ष 2009-10 में प्रदेश सरकार की ओर से नए बस अड्डे के निर्माण के लिए हल्द्वानी में सर्वे काम शुरू किया गया। सर्वे टीम में वन विभाग, परिवहन विभाग एवं राजस्व के कर्मचारी शामिल थे।

सर्वे टीम ने पाया कि गौलापार के रौखड़ क्षेत्र में मौजूद वन विभाग की आठ हेक्टेयर भूमि नए बस अड्डे के निर्माण के लिए उचित है। टीम ने यह भी पाया इस भूमि पर किसी प्रकार की अड़चन नहीं है। इसके बाद केंद्रीय वन मंत्रालय से अनुमति मांगी गई।

याचिकाकर्ता की ओर से बताया गया कि 2015 में केंद्र सरकार की ओर से प्रदेश सरकार को कुछ शर्तों के साथ इस भूमि पर गैर वानिकी गतिविधि की अनुमति दे दी गई। साथ ही राज्य सरकार की ओर से 84 लाख रुपए इस भूमि पर मौजूद पेड़ों की कीमत के रूप में जमा किए गए तथा इतनी भूमि पर अलग से पौधारोपण किया गया। यही नहीं सात करोड़ 60 लाख रुपए का भुगतान बस अड्डे के निर्माण के लिए एक कंपनी को कर दिए गए।

याचिकाकर्ता की ओर से अदालत को बताया गया अभी तक कुल 11 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। इसके बावजूद 19 नवंबर 2018 को राज्य सरकार की ओर से बिना उचित कारण बताए इस भूमि पर बस अड्डे का निर्माण रोक दिया गया और अन्यत्र निर्माण का फैसला ले लिया गया। इसके बाद याचिकाकर्ता की ओर से इस मामले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।

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