लखनऊ : बात 1958 की है…फर्रुखाबाद की जिला अदालत में अपनी कुर्सी पर एक जूनियर जज बैठा था. जेहन में भविष्य की उधेड़बुन चल रही थी. एक तरफ जज जैसी सरकारी नौकरी का आकर्षण था, दूसरी तरफ जनसेवा करने की तीव्र इच्छा. युवा बीएचयू में पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ का सचिव रह चुका था तो दिल और दिमाग में राजनीति कुछ ज्यादा ही बसती थी. नौकरी में रहते हुए जनता के लिए कुछ करने पर हाथ बंधे नजर आ रहे थे. उसने सोचा कि ऐसे ही नौकरी करता रहूंगा तो ज्यादा से ज्यादा भविष्य में जिला जज की कुर्सी तक पहुंचूंगा…और अगर राजनीति में उतर गया तो न जाने कहां तक पहुंचूंगा. आखिर उस युवा ने इस्तीफा दे मारा. यह देख उस समय के फर्रुखाबाद के जिला जज अपने जूनियर जज पर गुस्सा हो उठे और समझाने-बुझाने लगे, बोले- देखो, राजनीति की राह बड़ी कठिन होती है, वहां तो …सियासी नागिनें अपने बच्चे तक को खा जातीं है…मेरी बात मान लो, इस्तीफा वापस लो और नौकरी करो…
मगर उस युवा ने एक बार तय कर लिया तो तय कर लिया. आखिर इस्तीफा राजभवन से मंजूर हुआ. लोग युवक के फैसले से हैरान थे और घरवाले परेशान भी. जी हां, यह कहानी है यूपी के 13 वें मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा की. पारिवारिक रिश्तेदार और कांग्रेस नेता सुरेंद्र त्रिपाठी उनके घर को लेकर एक रोचक बात बताते हैं- श्रीपति मिश्रा का घर जौनपुर में है तो उसका दरवाजा सुल्तानपुर जिले में पड़ता है. दरअसल, उनका पैतृक गांव शेषपुर दोनों जिलों की सीमा पर स्थित है. हालांकि राजस्व के लिहाज से गांव जौनपुर में ही आता है. सीमा पर बसे गांव का होने के कारण श्रीपति मिश्रा का प्रभाव दोनों जिलों में रहा और उन्होंने सुल्तानपुर और जौनपुर दोनों को अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बनाई. सुल्तानपुर के प्रसिद्ध वैद्य पंडित राम प्रसाद मिश्रा के घर 20 जनवरी 1924 को जन्मे श्रीपति मिश्रा का सात दिसंबर 2002 को निधऩ हुआ. आज पुण्यतिथि के मौके पर आइए जानते हैं यूपी के 13 वें मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा की कहानी.
बहरहाल, 1954 से 1958 तक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की नौकरी के बाद इस्तीफा देकर वह युवा अब फर्रुखाबाद से बोरिया-बिस्तरा बांधकर अपने गांव पहुंच चुका था. उसी वक्त गांव की प्रधानी का चुनाव चल रहा था. उस युवा ने प्रधानी का पर्चा भर दिया. देश की सबसे छोटी पंचायत में जीत का सेहरा युवक के सिर पर बंध चुका था. चूंकि पास एलएलबी की डिग्री थी और बार काउंसिल में पंजीकरण तो सुल्तानपुर जिले की कचहरी में प्रैक्टिस भी करने लगे. प्रधानी भी चलती थी और वकालत भी. सीनियारिटी बढ़ी तो इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ बेंच में भी वकालत करने लगे. हालांकि सरकारी नौकरी से पहले भी श्रीपति मिश्रा 1952 में एक बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुके थे.
बात 1962 की है, मौका उत्तर-प्रदेश में तीसरी विधानसभा के चुनाव का. श्रीपति मिश्रा सुल्तानपुर जिले की विधानसभा सीट से ताल ठोकते हैं और पहली बार मार्च 1962 में विधायक बन जाते हैं. मार्च 1967 में चौथी विधानसभा में दोबारा विधायक बने. इस बीच 19 जून 1967 से 14 अप्रैल 1968 तक वे उत्तर-प्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष भी रहे. दो बार विधायक और विधानसभा उपाध्यक्ष रहने के बाद श्रीपति मिश्रा अब लोकसभा चुनाव लड़ने का मन बना चुके थे. 1969 में कांग्रेस ने सुल्तानपुर सीट से उतारा तो जीतकर सांसद भी बन बैठे. इस बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने उन्हें इस्तीफा देने का सुझाव देते हुए अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए राजी कर लिया. जिसके बाद 18 फरवरी 1970 से एक अक्टूबर 1970 तक वेचौधरी चरण सिंह की सरकार में मंत्री बने. ईमानदारी छवि के कारण मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने उनके जिम्मे कई विभाग दिए. इसमें खाद्य एवं रसद, राजस्व, समाज कल्याण, सहायक, शिक्षा, खेलकूद, श्रम, सहायता एवं पुनर्वास आदि महकमे रहे. 18 अक्टूबर 1970 से 04 अप्रैल 1971 तक वे त्रिभुवन नारायण सिंह सरकार में भी शिक्षा एवं प्राविधिक शिक्षा मंत्री रहे. फिर 1970 से 1976 तक एमएलसी बने. 1976 में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने. एक बार फिर जून 1980 में आठवीं विधान सभा के सदस्य बने.
बात 1982 की है, जब यूपी में डकैतों का आतंक सिर चढ़कर बोलता था. वीपी सिंह ने डाकुओं के खिलाफ अभियान छेड़ा तो दस्यु सरगनाओं ने एक गांव पर हमलाकर 16 गांववालों को भून दिया था. वहीं वीपी सिंह के भाई की भी डकैतों ने हत्या कर दी थी. जिसके बाद पूरे प्रदेश में डकैतों के आतंक और कानून-व्यवस्था धराशायी होने का मुद्दा जोर-शोर से गूंजा. आखिरकार नैतिकता के आधार पर वीपी सिंह ने इस्तीफा दे दिया. इस पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री का नया चेहरा खोजने का कांग्रेस के सामने संकट आया. उस वक्त कोई ऐसा नेता इंदिरा गांधी की नजर में नहीं आया, जिसकी छवि साफ-सुथरी हो और सियासत का गहरा अनुभवी हो. आखिरकार श्रीपति मिश्रा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ. कहा जाता है कि संजय गांधी से अच्छे रिश्ते की वजह से इंदिरा गांधी ने श्रीपति मिश्रा को सीएम बनाने का फैसला लिया था.
वीपी सिंह ने 9 जून 1980 से 18 जुलाई 1982 तक मुख्यमंत्री रहने के बाद इस्तीफा दिया तो श्रीपति मिश्रा सीएम बने. वह इस पद पर 19 जुलाई 1982 से दो अगस्त 1984 तक रहे. इस दौरान श्रीपति मिश्रा ने बीहड़ के खूंखार डकैतों के खिलाफ पुलिस से मुहिम चलवाकर कई सरगनाओं का सफाया कराया. कहा जाता है कि अरुण नेहरू के विरोध और राजीव गांधी से कुछ रिश्ते खराब होने के कारण बाद में श्रीपति मिश्रा को पद छोड़ना पड़ा था. हालांकि बाद में राजीव गांधी से उनके रिश्ते बेहतर हो गए थे. इससे पहले सात जुलाई 1980 से 18 जुलाई 1982 तक उत्तर-प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष थे.मुख्यमंत्री की कुर्सी चले जाने के बाद श्रीपति मिश्रा ने 1984 में जौनपुर की मछलीशहर लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और आठवीं लोक सभा के सदस्य बने, हालांकि, इसी सीट पर 1989 में उन्हें जनता दल के शिवशरण वर्मा से हार का सामना करना पड़ा था.
श्रीपति मिश्रा कांग्रेस के उन चंद नेताओं में शामिल रहे, जिन्होंने तीन तलाक के मसले पर शहबानो पर सुप्रीम कोर्ट का आया फैसला पलटने पर राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बतौर सांसद श्रीपति मिश्रा ने लोकसभा में इस बात के लिए अपनी ही सरकार की आलोचना की थी. उस वक्त कुछ अन्य नेताओं के साथ श्रीपति मिश्रा को पार्टी से निकाल दिया गया था. हालांकि बाद में राजीव गांधी से उनके रिश्ते सामान्य हुए तो फिर पार्टी में वापसी हुई. राजीव गांधी की हत्या के बाद धीरे-धीरे श्रीपति मिश्रा को पार्टी में उपेक्षित कर दिया गया. बाद में बीमारी के कारण लखनऊ में बतौर पूर्व मुख्यमंत्री मिले सरकारी आवास में उनका सात दिसंबर 2002 को निधऩ हो गया था. श्रीपति मिश्रा के तीन बेटे हैं. एक राकेश मिश्रा 1989 से छह साल के लिए यूपी से एमएलसी रहे, दूसरे बेटे आलोक मिश्रा उपनगर आयुक्त पद से रिटायर हुए और तीसरे बेटे प्रमोद मिश्रा भी विधानसभा चुनाव लड़े मगर हार गए. श्रीपति मिश्रा की एक बेटी भी है. कुल मिलाकर सरकारी नौकरी छोड़कर गांव की राजनीति करते हुए श्रीपति मिश्रा के मुख्यमंत्री बनने की कहानी फिल्मी लगती है.