मनोज श्रीवास्तव, लखनऊ : समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी का गुमान चकनाचूर कर दिया। माइक्रो बूथ मैनेजमेंट के नाम पर पन्ना प्रमुख नामक हौव्वा और भारी-भरकम प्रचार योद्धा नरेंद्र मोदी और अमित शाह की न सिर्फ हर रणनीति को तार-तार कर दिया, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी बनारस लोकसभा सीट पर धूल चाटते-चाटते बचे। सबसे पहले प्रत्याशियों की घोषणा करके भाजपा ने मानसिक बढ़त बनाने की कोशिश की, तो सपा प्रमुख ने पल पल, हर सीट पर अलग-अलग रणनीति बना कर गुजराती मायावियों का नशा उतार दिया। प्रत्याशी बदलना हो या प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश ने रॉकेट स्पीड से निर्णय लिया। अखिलेश हर रात नया सपना लेकर सोते थे तो हर सुबह एक नया अध्याय आरंभ करते थे। युवा राजनीतिज्ञ की सामरिक गतिशीलता ने उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव का शिखर पुरुष बना दिया। सबका साथ-सबका विकास का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी – अमित शाह यूपी में केवल गुजराती व्यापारियों का विकास करते करते रेड हैंड हो गये। टिकट वितरण में पुराने प्रत्याशी भाजपा नेतृत्व के लिये बोझ बन गये तो जीत की खोज में जूझ रहे अखिलेश यादव ने बार-बार प्रत्याशियों को ताश के पत्तों की तरह फेंटा । ज्यों – ज्यों चुनाव बढ़ा, भाजपा हवाई नारा और बदजुबानी में उलझती चली तो अखिलेश यादव ने सीट दर सीट प्रत्याशी के मोह को छोड़ कर जिताऊ समीकरण को अंगीकार किया। उन्होंने अपने परम्परागत वोट बैंक यादव और मुस्लिम मतदाताओं को बांध कर रखने की कामयाबी के साथ दूसरे समाज का प्रत्याशी उतार कर तीन तरफ से जीत का समन्वय स्थापित किया, जिसके परिणामस्वरूप अखिलेश यादव के पीडीए नारा ने सफलता का स्वरूप ले लिया । साथ में दलितों के आरक्षण छिनने के सुनियोजित प्रचार ने इंडिया गठबंधन के वोट का भंडार बढ़ा दिया। नीचे-नीचे अखिलेश ने लगातार अपनी नींव मजबूत की तो भारतीय जनता पार्टी हवाई उड़ान में इतने ऊंचे पहुंच गई, जहां से उसे जमीन पर उतरने का मार्ग ही नहीं दिख पाया। भाजपा के नेतृत्व, कार्यकर्ता और प्रत्याशियों में खराब बोलने की होड़ लगी थी तो अखिलेश यादव को नये प्रयोग की सफलता के आसार ने जमीन से जोड़ कर बांध दिया। भाजपा का मंदिर – मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम, ईडी – सीबीआई, मंगलसूत्र – मुजरा से लोग बोर हो गये । अखिलेश यादव ने सारा जोर पीडीए को साकार करने में लगा दिया, जिसके कारण दलित 7, कुर्मी 8, यादव 5, मुस्लिम 4, निषाद 2, ठाकुर 2, शाक्य 1, मौर्य 1, कुशवाहा 1 तथा एक राजभर भी जिता लिया, साथ ही लोधी 1, जाट 1, ब्राह्मण 1, भूमिहार 1 और वैश्य 1 भी जिताया । अब अखिलेश का पीडीए दहाड़ मार रहा है । अखिलेश यादव पिछड़े 20, दलित 9, मुस्लिम 4, सवर्ण 4 सांसदों का नेतृत्व करते हुये 18वीं लोकसभा की तीसरी ताकत बन कर उभरे हैं। लोकसभा चुनाव में मिली शानदार बढ़त ने विधानसभा चुनाव 2027 के लिये युवाओं को उद्वेलित कर दिया है।
समाजवादी पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने तत्कालीन वर्ष 2012 में अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन कर पार्टी के भीतर बाहर राजनैतिक चर्चा छेड़ कर खुद सरकार का संरक्षण करने लगे थे। तब एक वर्ग यह मानता था कि नेता जी को इस वक्त अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहिए था। अखिलेश के सामने पिता व राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नेता जी का शिकंजा बहुत दिनों तक उन्हें टीपू की छवि से बाहर ही नहीं होने दिया। नेता जी के कारण अखिलेश को चाचाओं की एक लंबी फौज मिली। उसमें भी एक से बढ़ कर एक चचा और चाचा जो अखिलेश की पीठ के पीछे सामने वाले पर अपना दबदबा स्वीकार कराने के लिये अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री कम और टीपू कह कर संबोधित करने में ज्यादा गौरवान्वित होते थे। इस सबसे ऊब चुके अखिलेश के पास एक ही रास्ता था मुलायम सिंह यादव के रहते पार्टी पर अपना वर्चस्व स्थापित करना। जिसे उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में प्राप्त कर लिया। हालांकि उसी विवाद में शिवपाल सिंह यादव ने पार्टी छोड़ दी, जिससे उनका पारिवारिक कलह इतना बढ़ा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते 2014 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी बुरी तरह हार गई । भाजपा ने सहयोगियों सहित 80 में से 73 सीट जीत ली। परिवार की केवल 5 सीटें बच पायीं थी। विधान सभा चुनाव 2017 में अखिलेश यादव सत्ता से बाहर हो गये । 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अखिलेश यादव ने बहुजन समाज पार्टी से बहुत झुक कर गठबंधन किया, फिर भी समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। इस बार डिम्पल यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव भी चुनाव हार गये। इसके बाद 2022 का विधानसभा चुनाव आया। यह चुनाव अखिलेश यादव बिना मुलायम सिंह यादव की भौतिक उपस्थित के लड़ने उतरे थे। ऐसा लगा कि नेता जी दुनिया में नहीं हैं लेकिन वह कदम-कदम पर बता रहे हों कि समय रहते झुकना सीख लो। इससे पूर्व अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमों मायावती का चक्कर काटने के बजाय बसपा में उपेक्षित पड़े दूसरी जातियों के बड़े क्षत्रपों को जोड़ने पर बल देने लगे। बसपा खाली होती गयी, सपा मजबूत होती गयी। अखिलेश ने भाजपा को भी जबरदस्त धक्का दिया। भाजपा सरकार से बर्खास्त किये गये सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर से समझौता कर लिया। भाजपा से बेइज्जती पाकर आये राजभर को अखिलेश ने भरपूर सम्मान दिया। पूर्वांचल में उनके साथ मिल कर लड़े। दोनों पार्टियां फायदे में रहीं। इससे पहले ऐन चुनाव के ठीक पहले योगी आदित्यनाथ की सरकार में पिछड़े समाज के तीन कद्दावर मंत्री एक साथ भाजपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये। स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्मपाल सैनी ने जो धक्का दिया, वह भाजपा को दिन में तारे दिखाने के लिये बहुत काफी था। तीनों को अखिलेश यादव ने क्रमशः स्वामी प्रसाद मौर्य को पडरौना, दारा सिंह चौहान को मऊ और धर्मपाल सैनी को सहारनपुर की नकुड़ विधानसभा से सपा का प्रत्याशी घोषित किया।
कुछ समय बाद सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने पहले सपा से गठबंधन तोड़ कर विश्वासघात किया। फिर दारा सिंह चौहान ने दगा दिया। उसके बाद धर्मपाल सैनी भी भाजपा के लाउंज में घूमते देखे गये। दारा सिंह चौहान ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। वहां उपचुनाव हुआ जिसमें यूपी सरकार पूरी ताकत से जुट गई। एक-एक मंत्री एक – एक पॉकेट पकड़ लिया। लेकिन सपा का चुनाव जनता लड़ेगी यह पहली बार दिखा । उपचुनाव में स्वयं अखिलेश यादव व सपा कार्यकर्ताओं ने जम कर पसीना बहाया। भाजपा प्रत्याशी दारा सिंह चौहान बहुत बड़े अंतर से पराजित हुये। इस घटना से उत्तर प्रदेश में सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व बैकफुट पर चला गया। केंद्र की मोदी सरकार ने यूपी का किला बचाने के लिये पूरी ताकत झोंक दी । प्रदेश में पिछड़े के नाम पर भाजपा के पास सबकी सुनने वाला एक मात्र नेता केशव प्रसाद मौर्य और बाकी सब सजावट के सामान बन कर रह गये थे। अखिलेश यादव ने अपना दल कमेरावादी की पल्लवी पटेल को आगे कर केशव प्रसाद मौर्य को उनके ही घर मे न सिर्फ घेरे रखा बल्कि उन्हें विधानसभा में जाने से रोकने में कामयाब हो गये। इस हार से भाजपा तो कुछ सबक नहीं ले पायी लेकिन अखिलेश को सफलता का मंत्र मिल गया। इसमें अखिलेश यादव ने अपनी सूझ – बूझ का परिचय दिया। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने अपने नेतृत्व का लोहा मनवाने हुये विधानसभा में मजबूत विपक्षी पार्टी बन कर उभरे। दिन – रात पार्टी को मजबूत करने में लगे अखिलेश ने पीडीए का नारा देकर जो अभियान छेड़ा, उससे कांशीराम के डीएस – 4 की याद ताजा हो गई । अखिलेश ने बड़ी सजगता से अति पिछड़ों को जोड़ने का, उनके समाज के नेताओं को चेहरा देने का काम किया।
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ताजा – ताजा दगाबाजी भूल कर बड़ा हृदय करते हुये अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव – 2024 के लिये कांग्रेस से गठबंधन किया। कांग्रेस को मुहमांगी सीटें दी। कांग्रेस यूपी में किसी तरह उन दो सीटों पर फिर से कब्जा चाहती थी जिनमें एक चली गयी थी, दूसरे पर खोने का खतरा मंडरा रहा था। 2019 में राहुल गांधी की अमेठी कांग्रेस से छिन चुकी थी और रायबरेली की घेरेबंदी हो गयी थी।अखिलेश यादव ने अमेठी में कांग्रेस के सम्मान की वापसी करवायी, रायबरेली में राहुल गांधी को 4 लाख से ज्यादे की शानदार जीत दिलवायी। यूपी में कांग्रेस को कल्पना से अधिक सात सीटों पर विजय मिली । भाजपा से लगातार हारता आ रहा कांग्रेस नेतृत्व हार के सदमें से बाहर निकला।अखिलेश यादव का गठबंधन उत्तर प्रदेश में सबसे सफल गठबंधन बन कर उभरा तो सत्ताधारी भाजपा की चूलें हिल गयीं। समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव में उप्र में अकेले सबसे ज्यादा सीट मिली। जिसके बल पर दस वर्ष बाद लोकसभा में कांग्रेस को लोकसभा में मजबूत मित्रों के साथ मुख्य विपक्षी दल का दर्जा प्राप्त हुआ। इस संख्या बल ने पहले दिन से ही विपक्ष का आत्मबल बढ़ा दिया है। जिसके कारण यह स्पष्ट दिखने लगा है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की तानाशाही सदन के अंदर-बाहर तो नहीं चल पायेगी ! अब भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र में भी नरेंद्र मोदी – अमित शाह की तानाशाही पर लगाम लगेगा। इसका श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वह पीडीए के संयोजक एवं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को जाता है।
2012 में सरकार बनाने के बाद अखिलेश यादव सबको खुश रखने का प्रयास किया, थोड़े ही दिनों में जिसके कारण उन्हें जनसमर्थन का नुकसान होने लगा लेकिन वह किसी को निराश नहीं करेंगे के चक्कर में अपने दुश्मनों की संख्या बढ़ाते चले गये। 2014 में उन्हें इसका प्रमाण भी मिल गया। लोकसभा चुनाव में राज्य के मुख्यमंत्री होते हुये अखिलेश यादव अपने दल समाजवादी पार्टी को मात्र 5 लोकसभा सीट जितवा पाये। 2019 में विधानसभा का चुनाव भी बुरी तरह से हार गये।सामाजिक क्षेत्रीय दलों के साथ समझौते और अति पिछड़ी जातियों के साथ खड़े होने और सम्मान देने से उनका जनसमर्थन बढ़ा। विधायक में 2017 के मुकाबले 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा विधायकों की संख्या 125 हो गयी। इस चुनाव के पूर्व अखिलेश यादव ने भाजपा से बर्खास्त किये गये सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के अपमान पर सम्मान का मरहम लगा कर अपने साथ जोड़ा। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा सरकार में शामिल अतिपिछड़ी जातियों के तीन मंत्रियों का त्यागपत्र दिलवा कर उन्हें समाजवादी पार्टी में शामिल कर भाजपा के सबका साथ-सबका विकास के नारे की जड़ हिला दिया।विधानसभा में 100 सीट से ऊपर मिलते ही आजमगढ़ लोकसभा की सदस्यता का मोह छोड़ अखिलेश यादव स्वयं विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने। यह निर्णय समाजवादी पार्टी में ठीक वैसे ही प्राण फूंक दिया जैसा नेता जी मुलायम सिंह यादव ने मायावती सरकार के दौरान हजरतगंज चौराहे पर पहुंच कर घर बैठ चुके सपाइयों में प्राण फूंक दिया था।
भाजपा की जनविरोधी नीतियों के विरोध के साथ पीडीए के फार्मूले को जीवंत करने में बुद्धि और ताकत दोनों झोंक दिये।लेकिन सत्ता के लिये अखिलेश यादव के साथ आये लोगों की पहचान ज्यों-ज्यों अखिलेश करने लगे त्यों-त्यों गरीब और गरीबों की लड़ाई में समाजवादी पार्टी के कदम में कदम मिला कर चलने का वादा करके आने वाले सत्तालोलुप लोग भाजपा की गोद मे वापस जाकर बैठने लगे। सबसे पहले यह कार्य सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने किया। फिर समाजवादी पार्टी के टिकट पर मऊ से विधानसभा चुनाव जीते दारा सिंह चौहान ने किया। दारा सिंह ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। दारा सिंह और ओमप्रकाश राजभर की चालाकी का जनता में इस कदर गुस्सा फैला कि दारा सिंह की सीट पर हुये उपचुनाव में पूरी योगी सरकार उपमुख्यमंत्री मंत्री नम्बर एक केशव प्रसाद मौर्य और उपमुख्यमंत्री नम्बर दो ब्रजेश पाठक वहां डेरा डालने के बाद भी भाजपा प्रत्याशी दारा सिंह चौहान की बहुत शर्मनाक पराजय हुई। इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में घोषी से लड़े ओमप्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर को भी शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। पीडीए के प्रवर्तक अखिलेश यादव ने इन दोनों नेताओं को ऊंची जातियों के प्रत्याशियों से पटकनी दिलवायी। नेता जी मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में एक बड़ा अंतर है। नेता जी गद्दारों की माफ कर देते थे।जबकि अखिलेश यादव गद्दारों का घमंड तोड़ कर न सिर्फ मजबूर कर देते बल्कि समानान्तर नेता पैदा कर देते हैं। इसका सबसे मजबूत उदाहरण बसपा सुप्रीमों मायावती हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने उनको उनकी तात्कालिक राजनैतिक ताकत से ज्यादा उनके शर्तों के सामने उन्हें टिकट दिया। सार्वजनिक जनसभा में डिम्पल यादव से मायावती का पैर छू कर आशीर्वाद मंगवाया। तब यादव ब्रिगेड में अखिलेश की आलोचना भी हुई, लेकिन उसी विनम्रता के सहारे अखिलेश ने मायावती की तानाशाही से दुःखी उनके सेनापतियों को एक-एक कर तोड़ लिया। बसपा से जुड़े विभिन्न जातियों के अधिकांश नेताओं को तोड़ कर पीडीए की कल्पना को साकार करते हुये 2024 में उत्तर प्रदेश के सबसे ताकतवर नेता के रूप में उभरे। मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में कांग्रसी कुटिलता के शिकार होने के बाद भी बड़ा दिल करके लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़े।जानकार बताते हैं कि मध्यप्रदेश में धोखेबाजी करने के बाद गांधी परिवार इतना डरा था कि अखिलेश यदि गठबंधन नहीं किये तो यूपी में जो रायबरेली की एक सीट सपा के अघोषित समझौते के बल पर बची रह गयी है वह भी छिन जायेगी।लोकसभा चुनाव के लिये जैसे ही गांधी परिवार ने अखिलेश यादव से संपर्क किया उन्होंने बड़ा दिल दिखाते हुये कांग्रेस को उसके राजनैतिक ताकत से बहुत ज्यादा 17 सीटें देकर गठबंधन कर लिया। गांधी परिवार पूरा लोकसभा चुनाव अमेठी और रायबरेली पर केंद्रित करके लड़ा लेकिन अखिलेश यादव की उदारता के कारण आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास सात लोकसभा सदस्य हैं। अखिलेश यादव के सहारे विधानसभा का मुंह देखने वाली अपना दल कमेरवादी की पल्लवी पटेल ने राज्यसभा के चुनाव के ऐन मौके पर धोखा देते हुये सपा के तीसरे प्रत्याशी का विरोध कर अलग लाइन बनाने की कोशिश किया परिणाम आज अलग-थलग पड़ गयी हैं। अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के सिंबल पर यूपी से सात कुर्मी लोकसभा सदस्य भेज कर बता दिया कि गैर यादवों में भी पिछड़ों के नेता हम हैं। ऐसा तब संभव हुआ जब उन्होंने विभिन्न समाज के नेताओं को न सिर्फ सम्मान दिया बल्कि उन्हें स्थापित करके अपना राजनैतिक पुरुषार्थ सिद्ध कर दिया।
पिछड़ा, महिला, सवर्ण, मुस्लिम जिस भी समाज के प्रत्याशी को वह उतारे उसमें दो विशेषता थी। वरिष्ठ है तो जाना परखा वफादार चेहरे जो तरजीह दी या फिर दूरगामी रणनीति पर काम करते हुये युवाओं पर दांव लगाया। रघुराज प्रताप सिंह “राजा भइया” हों या आजमखान हर कोई अखिलेश की रणनीति के आगे बिछ गया था। सर्वविदित है कि अखिलेश यादव ने 2024 के चुनाव में पीडीए की ताकत की परख कर रहे थे। इसकी असली मार 2027 के विधानसभा चुनाव में दिखेगी। यदि माहौल इसी प्रकार रहा तो अखिलेश यादव दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाते दिख रहे हैं। अखिलेश यादव की तैयारी से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी की नींद उड़ गई है। जिसका सबसे साफ लक्षण यह है कि उसके हताश कार्यकर्ता जगह-जगह प्रशासन से टकरा कर अपनी और पार्टी का ग्राफ तेजी से घटा रहे हैं। अखिलेश यादव का युवाओं को सम्मान देने और जरुरतमंदों को सहारा देकर कोई एहशान न जताने से लोगों के हृदय में उनका स्थान तेजी से बढ़ रहा है। यदि किसी षड्यंत्र के शिकार न हुये तो अखिलेश यादव जल्द ही देश की राजनीति के प्रमुख धुरी बन कर उभरेंगे। नेता जी का जो सपना उनके जीते जी नहीं साकार हुआ, उनके आशीर्वाद से अखिलेश यादव में साकार करने की शक्ति बन कर एक दिन पुनः दिखेंगे।