मोहित यादव : हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने जातियों को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि “जातियां भगवान ने नहीं, पंडितों ने बनाई हैं।” यह कथन भारतीय समाज में लंबे समय से चली आ रही जाति-व्यवस्था पर पुनर्विचार करने का आह्वान करता है। भागवत का यह बयान न केवल संघ की विचारधारा के विकास को दर्शाता है, बल्कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।
जाति-व्यवस्था का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था प्राचीन काल से ही सामाजिक संरचना का हिस्सा रही है। इसके मूल में कार्य-विभाजन और सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना था। वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था चार मुख्य वर्गों में विभाजित थी – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह व्यवस्था व्यक्ति के गुण और कर्म पर आधारित थी। लेकिन समय के साथ यह जन्म आधारित बन गई, जिससे भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना ने जन्म लिया।
मध्यकाल में धार्मिक ग्रंथों और पंडितों द्वारा इस व्यवस्था को धर्म और परंपरा का हिस्सा बना दिया गया। परिणामस्वरूप, जाति-व्यवस्था कठोर हो गई और इसे ईश्वर प्रदत्त मान लिया गया। इसने समाज में गहरी खाई उत्पन्न की और समानता के आदर्शों को ठेस पहुंचाई।
मोहन भागवत का दृष्टिकोण
मोहन भागवत का यह बयान कि “जातियां भगवान ने नहीं बनाई, बल्कि यह मानव निर्मित हैं,” समाज को एक नई दिशा देने का संकेत है। यह विचार भारतीय संस्कृति के उस मूल सिद्धांत के अनुरूप है, जो “वसुधैव कुटुंबकम्” यानी संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानता है। भागवत ने अपने बयान में सामाजिक समरसता और समानता की बात कही है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जातिगत भेदभाव मानवता के खिलाफ है और इसे धार्मिक आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता।
बयान का सामाजिक प्रभाव
भागवत का यह बयान जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक बड़ा कदम हो सकता है। भारत जैसे देश में, जहां जाति-व्यवस्था ने सदियों तक सामाजिक अन्याय और असमानता को बढ़ावा दिया है, यह विचारधारा परिवर्तन की ओर प्रेरित कर सकती है। इस बयान के प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हो सकते हैं:
समानता की दिशा में बढ़ता कदम: यह बयान लोगों को यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि जाति-व्यवस्था मानव निर्मित है और इसे बदला जा सकता है। इससे समाज में समानता और भाईचारे को बढ़ावा मिलेगा।
धार्मिक नेताओं की जिम्मेदारी: इस बयान से यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक नेताओं और विद्वानों को समाज के उत्थान के लिए अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा।
युवाओं को प्रेरणा: आज की युवा पीढ़ी जाति-व्यवस्था को धीरे-धीरे खारिज कर रही है। भागवत का यह बयान इस प्रक्रिया को और मजबूत कर सकता है।
राजनीतिक और सामाजिक संवाद: भागवत के बयान के बाद राजनीतिक और सामाजिक संगठनों में भी जाति के मुद्दे पर चर्चा तेज होगी। इससे सकारात्मक बदलाव की संभावना बढ़ेगी।
चुनौतियां और आलोचनाएं
हालांकि यह बयान प्रगतिशील है, लेकिन इसके सामने कई चुनौतियां भी हैं। भारतीय समाज में जातिगत पहचान इतनी गहराई से समाई हुई है कि इसे पूरी तरह समाप्त करना आसान नहीं है। कई लोग इसे केवल एक राजनीतिक बयान मान सकते हैं, जबकि कुछ परंपरावादी लोग इसका विरोध भी कर सकते हैं।
आलोचकों का यह भी कहना है कि अगर जाति-व्यवस्था गलत है, तो उसे पूरी तरह समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। केवल बयान देना पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं।
समाधान और आगे का रास्ता
शिक्षा का प्रसार: जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए शिक्षा सबसे प्रभावी माध्यम है। शिक्षा के माध्यम से लोगों को यह समझाया जा सकता है कि सभी मनुष्य समान हैं।
समान अवसर: सभी वर्गों के लोगों को समान अवसर प्रदान करना जरूरी है, ताकि वे अपनी क्षमताओं के अनुसार उन्नति कर सकें।
धार्मिक ग्रंथों की पुनर्व्याख्या: धार्मिक ग्रंथों की उन व्याख्याओं को बदलना होगा जो जाति-व्यवस्था को सही ठहराती हैं।
सामाजिक आंदोलन: सामाजिक संगठन और नागरिक समाज जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।
निष्कर्ष
मोहन भागवत का यह बयान भारतीय समाज में सुधार और समरसता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। यह केवल बयानबाजी तक सीमित न रहकर, एक व्यापक सामाजिक आंदोलन का आधार बन सकता है। यह बयान न केवल वर्तमान पीढ़ी को प्रेरित करता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी समानता और भाईचारे के आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करेगा।
यदि हम सभी जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए संगठित प्रयास करें, तो भारतीय समाज “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और “सर्वे संतु निरामयाः” जैसे आदर्शों को वास्तविकता में बदल सकता है। यह तभी संभव है जब हम अपने विचारों और कार्यों में समानता, न्याय और समरसता को प्राथमिकता देंगे