अशाेक यादव, लखनऊ। शैक्षिक नीति एवं ढांचे की खामियों के अलावा अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों में कम खर्च के कारण भारत नवाचार गतिविधियों में चीन से बहुत ज्यादा पिछड़ गया है।
भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भारत की नई शिक्षा नीति पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि नई शिक्षा नीति खिचड़ी है जिसे इधर-उधर से कुछ लेकर तैयार किया गया है। इससे देश का भला होने वाला नहीं है। हमारी इन्हीं लापरवाहियों के कारण रिसर्च और इनोवेशन में चीन हमसे बहुत आगे निकल गया है। हमारे यहां सारा जोर अंकों और डिग्री पर रहता है। जिससे छात्र कुछ नया करने की सोच ही नहीं पाते और जो रटाया जाता है वही लिखकर पास हो जाते हैं।
स्वामी विवादास्पद नेता हैं। लेकिन उनकी सारी बातों को हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता। शिक्षा नीति और नवाचार के बारे में उनकी बातें विचारणीय हैं। क्योंकि अनुसंधान, अविष्कार और पेटेंट के मामले में देश की स्थिति वास्तव में गंभीर है। खुद सरकार के आंकड़े इसके गवाह हैं। जिनके मुताबिक पेटेंट, ट्रेडमार्क और डिजाइन संबंधी आवेदनों और पंजीकरण एवं मंजूरियों के मामले में भारत की स्थिति चीन और अमेरिका के मुकाबले अत्यंत सोचनीय है।
पेटेंट को ही लें। वर्ष 2016 में चीन में पेटेंट के लिए 13,38,503 आवेदन दाखिल किए गए थे। जबकि 4,04,208 आवेदनों को मंजूरी मिली। इसी तरह अमेरिका में पेटेंट के 6,05,571 आवेदन दाखिल किए गए, जबकि 3,03,049 मंजूर हुए। इनके मुकाबले भारत में पेटेंट की खातिर महज 45,444 आवेदन दर्ज कराए गए और 9847 आवेदनों को मंजूरी लायक समझा गया।
मोदी सरकार के चार सालों बाद भी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। इसका अंदाजा 2019 के आंकड़ों से चलता है जब भारत में पेटेंट के 56,284 आवेदन दाखिल हुए, जबकि से 24,936 आवेदनों को मंजूरी मिली। लेकिन उसी साल चीन में पेटेंट के 14,00,661 आवेदन दाखिल तथा 4,52,804 आवेदनों को मंजूर हुए। जबकि अमेरिका में 6,21,453 आवेदन दाखिल हुए 3,54,430 आवेदनों को मंजूरी मिली।
कुछ यही हाल ट्रेडमार्क का भी है। वर्ष 2019 में चीन में ट्रेडमार्क के 78,37,441 आवेदन दाखिल तथा 64,0840 पंजीकृत हुए। जबकि अमेरिका में 4,92,729 आवेदन फाइल और 3,20,562 रजिस्टर हुए। इनके मुकाबले भारत में दाखिल तथा पंजीकृत होने वाले ट्रेडमार्क आवेदनों का आंकड़ा क्रमशः 3,34,815 तथा 2,94,172 का है।
डिजाइन के क्षेत्र में भी भारत के आंकड़े ज्यादा उत्साहवर्द्धक नहीं हैं। वर्ष 2019 में भारत में नए डिजाइनो के कुल 14,272 आवेदन दाखिल कराए गए। जबकि 12,268 आवेदनों का पंजीकरण हुआ। जबकि इनके मुकाबले चीन में 7,11,617 आवेदन दाखिल और 5,56,529 दर्ज हुए। अमेरिका में भी 46,825 आवेदन दाखिल कराए गए जबकि 35,047 का पंजीकरण हुआ।
विशेषज्ञों की माने तो भारत में आइआइटी और कुछ अन्य गिने-चुने उच्च शिक्षण संस्थानों को छोड़कर अनुसंधान एवं विकास पर बहुत कम काम होता है। सामान्य डिग्री कॉलेजों में विज्ञान की पढ़ाई लचर है और पूरी तरह किताबी ज्ञान पर आधारित है। जबकि प्रायोगिक पढ़ाई का मकसद परीक्षा में अंक बढ़ाना होता है। दूसरी ओर स्कूली शिक्षा विद्यार्थियों के मन में कौतूहल, प्रश्न, आविष्कार और सृजन का भाव पैदा करने के बजाय रटने और अगली क्लास या अच्छे कॉलेज में दाखिला लेने भर को प्रेरित करती है।
लेकिन इस स्थिति के लिए अकेले शिक्षा प्रणाली को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अनुसंधान व विकास (आर एंड डी) पर मामूली खर्च की प्रवृति भी एक बड़ा कारण है। आर एंड डी पर हम अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 0.7 फीसद खर्च करते हैं। जबकि चीन में यह खर्च 2.1 फीसद है। ब्राजील जैसा विकासशील देश भी आर एंड डी पर भारत से ज्यादा 1.3 फीसद खर्च करता है।
इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस ओर संकेत किया गया था। जिसके मुताबिक कम खर्च के कारण ही नवाचार के मामले में भारत का स्थान 131 प्रमुख देशों में 48वां है। जहां विश्व के 10 प्रमुख देश आर एंड डी पर 1.5-3 फीसद खर्च करते हैं। वहीं हम अभी 1 फीसद खर्च के लिए ही हाथ-पांव मार रहे हैं।
भारत का कारपोरेट सेक्टर भी आर एंड डी पर ध्यान देने के बजाय ‘जुगाड़’ पर निर्भर है। यहां प्राइवेट सेक्टर में आर एंड डी से जुड़े कर्मचारियों और अनुसंधानकर्ताओं की संख्या क्रमशः 30 और 34 फीसद है। जबकि 10 प्रमुख देशों में 58 फीसद कर्मचारी और 53 फीसद अनुसंधानकर्ता आर एंड डी के कार्यों में लगे हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण में चीन की कामयाबी का कारण भी बताया गया है। जिसके मुताबिक चीन ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास के लिए 2006 में 15 वर्षीय दीर्घकालिक योजना पर काम करना शुरू किया था। जबकि भारत में 2015 में इस दिशा में कुछ काम शुरू हुआ है। इसमें भी शैक्षिक संस्थानों के बजाय व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर ज्यादा फोकस है।