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लिव-इन रिलेशनशिप पर उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से मांगी राय

लखनऊ /नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट अब इस बात पर विचार करेगा कि किसी महिला के साथ लंबे समय तक साथ रहने और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने वाला कोई पुरुष अगर महिला के साथ शादी से मुकर जाता है तो क्या उसकी कोई जिम्मेदारी बनती है? क्या महिला को पत्नी की तरह गुजारा भत्ता, संपत्ति में हिस्से का अधिकार दिया जा सकता है? क्या ऐसे संबंधों को अपने आप ही शादी की तरह देखा जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ऐसे सवालों की जांच के लिए तैयार हो गया है. कोर्ट ने इस पर केंद्र सरकार से उसकी राय मांगी है.

जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और अब्दुल नजीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा है कि क्या लंबे समय तक चले करीबी रिश्तों को ‘शादी जैसा’ माना जा सकता है? रिश्ते को ‘शादी जैसा’ मानने का पैमाना क्या होना चाहिए? कितने वक्त तक चले रिश्ते को ऐसा दर्जा दिया जाए? कोर्ट ने वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी को इस मामले में मदद के लिए एमिकस क्यूरी के तौर पर नियुक्त किया है. कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को इस मसले पर अदालत की मदद के लिए किसी लॉ ऑफिसर को नियुक्त करने को कहा है.क्या है पूरा मामला
बंगलूरु के आलोक कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर खुद पर लगे दुष्कर्म समेत अन्य अपराधिक मामलों को निरस्त करने की मांग की है. कर्नाटक हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता पर लगे दुष्कर्म सहित अन्य अपराधों के तहत दर्ज मुकदमे को निरस्त करने की अपील ठुकरा दी गई थी. महिला की मां ने याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी.

याचिकाकर्ता का कहना है कि उस पर यह आरोप नहीं बनता, क्योंकि महिला की मर्जी से दोनों साथ रहते थे और आपसी सहमति से उनके बीच संबंध स्थापित हुए थे. अब सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामले पर रोक लगा दी है.

लिव इन रिलेशन बैध है 
लिव इन रिलेशन में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून के तहत आने, गुजारा भत्ता पाने और संपत्ति में हिस्सा पाने के योग्य करार चुका है. व्यस्क जोड़े को शादी के बिना भी साथ रहने का अधिकार है. ये बात सुप्रीम कोर्ट ने केरल की रहने वाली 20 वर्षीय महिला के मुकदमे के संबंध में कही थी. महिला की शादी शून्य घोषित कर दी गई थी. लेकिन उससे ये कहा गया कि उसे अधिकार है कि वह जिसके साथ रहना चाहे, रह सकती है. कोर्ट ने ये भी कहा था कि लिव-इन रिश्तों को अब कोर्ट भी मान्यता देता है. इसे महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत कानून में जगह दी गई है.

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