रायपुर: छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से महज 55 किलोमीटर दूरी पर कुर्मा तराई गांव की ये महिलायें हाथ में हंसिया और फावड़ा लेकर काम करती दिखीं तो लगा मनरेगा का अमल ठीक से हो रहा है, नजदीक से बात करने पर हकीकत पता चलती है. पूरे साल में सिर्फ 11 दिन का काम मिला, सरकार का सौ दिन के रोजगार का वादा केवल कागजी है. सड़क किनारे काम कर रही लक्ष्मी साहू ने बताया बस 11 दिन का काम खोला था, फिर बंद कर दिया, पैसा एक सप्ताह का मिला है मतलब 4 जून को कहते हैं लेकिन देते नहीं हैं. इसी गांव की विद्या के लिए मनरेगा एक जख्म जैसा है. कहती हैं साल 2016 में जो काम किया उसका भुगतान 3 सालों बाद भी नहीं मिला. अफसर और बाबू चक्कर लगवाते है मगर खाते में पैसा नहीं डालते पैसा नहीं मिला, 4 हफ्ता काम किया. पर साल चला गया.
पैसा नहीं मिला है, खाता में आया है तो बैंक में नहीं. आएगा खाता में ऐसा कहा अभी भी नहीं आया है. नेमिन की परेशानी भी कुछ ऐसी ही है ,दो साल हो गए काम का पैसा नहीं मिला , परिवार चलाने में कठिनाई आती है , साहूकारों के पास मजदूरी से काम चलता है , सरकार है कि सुनती नहीं खाता में जाकर पता करते हैं, तो पैसा नहीं आया है. बैंक में खाता खुलवाये हैं वहां जाकर पता करो बोलते हैं, स्कूल में पंचायत में मीटिंग हुई फॉर्म भी भरा फिर भी पैसा नहीं आया, बाहर जाते हैं कमा कर लाते हैं फिर खर्चा पानी चलता है. धमतरी जिले के हर हिस्से में कमोबेश यही हालत है. देमान गांव के ये आदिवासी काम की उम्मीद में जॉब कार्ड साथ लेकर चलते है , पुराना भुगतान नहीं हुआ शायद नए काम पर जिम्म्मेदारों को तरस आ जाए .धमतरी से बस्तर, रोजगार की गारंटी का खोखलापन नेगानार गांव में साफ दिखाई देता है. कैमरा देख भगीरथ बघेल अपने परिवार का जॉब कार्ड दिखाने आ गए.
साल 2009 में काम मिला उसके बाद किसी तरह का रोजगार सरकार ने नहीं दिया, परिवार के खर्चों को पूरा करने के लिए पलायन करना मजबूरी है और साहूकारों से कर्ज मजबूरी पहले पहले दिया अभी नहीं दे पाये, 2009 के बाद कामधाम है नहीं जगदलपुर जाते हैं, ऐसे जीना खाना हो रहा है. मजदूरी करते हैं. और भी लोग हैं जिनको काम नहीं मिला.आंध्र प्रदेश तक जाते हैं. हाट बजार करते हैं 2000 लेते हैं तो 2500 रुपये पटाना पड़ता है, एक हफ्ते में. वहीं, दयासागर नाथ कहते हैं पिछले 5 साल के कुछ आया नहीं, आता है तो खेत बनाना तालाब बनाना लेकिन पैसा तुरंत नहीं मिलता है 8-9 महीना लग जाता है. मनरेगा में कम से कम 100 दिन के काम की गारंटी है, लेकिन ना काम है, ना गारंटी के कोई मायने. जिन लोगों को थोड़ा काम मिला भी तो भुगतान के लिए सालों से इंतज़ार करना पड़ता है.
कामलमती कि उम्र चेहरे की झुर्रियों से समझ आती है , कुछ लकीरें गांव में सड़क निर्माण में … कई मजदूरी हासिल करने के चक्कर लगाते लगाते खिंच गई . जिम्मेदार अधिकारी नियम और योजना का हवाला देते हुए खुद की पीठ थपथपाते है, काम की गति और उपलब्धि गिनाते हुए रोजगार के लिए पलायन से इंकार करते है. दरभा जनपद सीईओ अरुण वर्मा ने कहा ऐसी स्थिति मेरी जानकारी में नहीं है, ऐसी कोई शिकायत आई नहीं है , काम ग्राम पंचायत की ग्राम सभा से आता है… यहां बसाहट की स्थिति दूर दूर होती है ऐसी स्थिति नहीं है कि काम ना मिल रहा हो. अधिकारी ठोस आंकड़े ना दें, लेकिन मनरेगा की वेबसाइट बताती है कि राज्य में 2018-19 में कुल 3910459 परिवार पंजीकृत थे, लेकिन 100 दिनों का रोजगार सिर्फ 428392 परिवारों को मिला, यानी लगभग 10 फीसद. बस्तर में काम भी घटा है 2017-18 में मनरेगा के तहत 15848 परियोजनाएं थीं तो इस साल 3,360.
राज्य कह रहा है कि केन्द्र ने 5 महीने से सामग्री के लगभग 266 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं किया है, छत्तीसगढ़ देश के उन राज्यों में है जहां मनरेगा की मजदूरी सबसे कम है, 176 रुपये. लेकिन पंचायती राज मंत्री टीएस सिंहदेव दिक्कत को दिक्कत मानते ही नहीं, मनरेगा की पेमेंट्स में जब वर्तमान सरकार आयी तो 700 करोड़ रुपये से अधिक लंबित थे और नई सरकार के गठन के बाद प्रयास किये गए केंद्र सरकार से संपर्क किया गया दस्तावेजों को अन्य जानकारी को पुख्ता रूप से प्रस्तुत किया गया. और हम संतुष्ट है कि आज लगभग मनरेगा के रोजगार के भुगतान लगभग पूरे प्राप्त हो गए हैं कुछ भुगतान है को किसी कारणों से लंबित है, उसके लिए भी हम केंद्र सरकार से बात कर रहे हैं ऐसी स्थिति में ऑनलाइन पेमेंट भी हो रहा.
अब अगर ऐसी स्थिति में अगर ऑनलाइन पैसा किसी मजदूर के खाते में नहीं जा पाता तो वो केंद्र सरकार को वापिस चला जाता है और उस पैसे को वापिस लेने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है . करीब 72-73 करोड़ की ऐसी राशी है जिसे वापस लाने का काम काफी है. आज कंपोनेंट भुगतान नहीं के बराबर बचा है और अगर बचा है आप बता रहे हैं तो हम देखेंगें. काम नहीं है, मजदूरी कम है, वो भी सालों मिलती नहीं, मनरेगा योजना तो अच्छी है, लेकिन कई जगहों पर सरकारी उदासीनता से इसे वाकई गड्ढे में डाल दिया है. बस्तर से आदिवासियों का पलायन कम होता था, लेकिन रोजगार गारंटी योजना में काम नहीं है जिसकी वजह से यहां से भी आदिवासी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र समेत दूसरे राज्यों की तरफ पलायन कर रहे हैं, सरकारी फिक्र तो जता देती हैं, लेकिन हालात सुधारने के लिये गंभीर प्रयास बहुत कम हो रहे हैं, सच्चाई यही लगती है हुक्मरान बदलते हैं हालात नहीं.