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सत्तारूढ़ दल का खजाना भरने का जरिया बन गए हैं चुनावी बांड

नई दिल्ली। यूं तो केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को हमेशा से ही सर्वाधिक चुनावी चंदा हासिल होता रहा है। लेकिन चुनावी बांड की स्कीम प्रारंभ होने के बाद जिस तरह भारतीय जनता पार्टी का खजाना चुनावी चंदे से लगातार लबरेज होता जा रहा है, उससे इस स्कीम की नैतिकता को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं।

चुनावी या इलेक्टोरल बांड अरुण जेटली की देन हैं। जिन्होंने राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर 2017-18 के बजट में इसका प्रस्ताव पेश किया थी। जबकि 29 जनवरी, 2018 को इसकी अधिसूचना जारी की गई थी। इलेक्टोरल बांडों का मकसद कंपनियों, उद्योगपतियों और व्यापारियों को अपना नाम उजागर किए बिना राजनीतिक दलों को चंदा देने की सुविधा प्रदान करना था।

लेक्टोरल बांड एक तरह का बिना नाम वाला अनुमति पत्र है। जिसे कोई भी भारतीय नागरिक अथवा भारत में पंजीकृत कंपनी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकती है। खरीदने के बाद इसे किसी भी पात्र मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल को चंदे के तौर पर दान किया जा सकता है। जबकि दान पाने वाला राजनीतिक दल इन्हें धारक के तौर पर बैंक में भुनाकर इंगित राशि प्राप्त कर सकता है।

चूंकि बांड पर दानदाता का नाम नहीं होता इसलिए आम जनता के समक्ष उसकी पहचान उजागर नहीं होती। केवल सरकार को ही इसकी जानकारी होती है। सूचना के अधिकार के तहत भी आम नागरिकों को महज राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदे की राशि के बारे में जानने का अधिकार दिया गया है।

साधारण और संपन्न सभी वर्ग के दानदाताओं की सुविधा के मद्देनजर इलेक्टोरल बांड 1000, 10,000, एक लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपये के गुणकों में उपलब्ध कराए जाते हैं। इन्हें भुनाने का अधिकार उन्हीं दलों को है जिन्हें पिछले लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में कम से कम एक फीसद वोट मिले हों। इलेक्टोरल बांड का पैसा जिस बैंक खाते में जाता है उसकी जानकारी चुनाव आयोग को देनी आवश्यक है।

इलेक्टोरल बांड आने से राजनीतिक दलों को चंदा देने पर कोई सीमा नहीं रह गई है। अब कोई भी व्यक्ति या प्रतिष्ठान कितनी भी राशि के बांड खरीद सकता है और अपने पसंदीदा राजनीतिक दल या दलों को दे सकता है। उन्हें केवल 20 हजार रुपये से अधिक चंदा देने वालों का ब्यौरा चुनाव आयोग को देना होता है। सरकार और कोर्ट के अलावा कोई अन्य ये नाम मालूम नहीं कर सकता।

इलेक्टोरल बांडों के बारे में लगातार सामने आ रहे आंकड़ों से इसकी पुष्टि होती है। चुनाव आयोग के ताजा आंकड़ों के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2019-20 में बिके कुल 3355 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बांडों में सत्तारूढ़ भाजपा को 76 फीसद (2555 करोड़ रुपये) राशि प्राप्त हुई हो। जबकि आरटीआइ से प्राप्त सूचना के मुताबिक वर्ष 2018 से लेकर अब तक कुल मिलाकर लगभग 7400 करोड़ रुपये के चुनावी बांड की बिक्री हुई है। जिसमें से भाजपा को 92 फीसद तक रकम प्राप्त हुई है। जबकि बाकी छह राष्ट्रीय दलों को शेष राशि से बंटवारा करना पड़ा है।

इससे पूर्व वर्ष 2018-19 में सात राष्ट्रीय दलों को लगभग 3,750 करोड़ रुपये का चंदा प्राप्त हुआ था। इसमें 33 फीसद राशि 20 हजार से अधिक चंदा देने वाले ज्ञात दानदाताओं की ओर से आई थी। जबकि 67 फीसद राशि इससे कम चंदा देने वालों से प्राप्त हुई थी। नियमों का फायदा उठाते हुए राजनीतिक दल चुनाव आयोग को केवल 20 हजार रुपये से अधिक राशि देने वाले दानदाताओं का ब्यौरा देते हैं। जबकि 20 हजार रुपये से कम चंदा देने वालों की जानकारी गोपनीय रखते हैं।

चुनाव आयोग खुद इन नियमों को पारदर्शिता के खिलाफ बताकर एतराज जता चुका है। उसका मानना रहा है कि इलेक्टोरल बांड कालेधन को खपाने का नया जरिया बन सकते हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों से पहले जब एक स्वयंसेवी संस्था ने इन बांडों पर रोक की मांग सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखी तो आयोग का नजरिया अचानक बदल गया और उसने बांडों के पक्ष में दलीलें दे कोर्ट को इन पर रोक न लगाने को विवश कर दिया।

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