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शॉर्ट फिल्म – आसरा : एक मजबूर संघर्षरत किसान की मनोदशा को बताती एक चुनौतीपूर्ण फिल्म !

अनिल सिंह , लखनऊ / मुंबई : दूसरों की जान बचाने के लिए इंसान किसी भी हद तक जा सकता है, फिर कोई खुद अपनी जान देने के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता है? अगर किसी के मन में खुदकुशी के ख्यालात आते भी हैं तो किन हालात में? क्या वास्तव में आत्महत्या करने वाले कायर होते हैं ?आत्महत्या की हर पहेली ऐसे ही सवालों में उलझ कर रह जाती है, भले ही मामला किसी किसान का हो या फिर आम इंसान का. हैरानी तो तब होती है जब जिम्मेदारी और जवाबदेही के ओहदे पर बैठे लोग भी इसे प्रॉपेगैंडा बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं.

काइंड फिल्म्स की पेशकश ‘आसरा’ खुदकुशी के वक्त हर उस किसान पर थोपी हुई मनःस्थिति के उस पक्ष को उजागर करती है, जिससे समाज को जबरन महरूम कर दिया जाता है. इसकी वजह सामाजिक या राजनीतिक क्यों न हो. मृगाङ्क शेखर की कहानी पर आधारित, संजय कुमार सिंह द्वारा निर्देशित इस शॉर्ट फिल्म के प्रोड्यूसर हैं – पवन लाहोटी.

‘आसरा’ देख कर मालूम होता है कि मौत सबको डराती है, लेकिन ये डर ही है जो लड़ने की हिम्मत देता है. जब मौत के एहसास भर से रूह तक कांप उठती हो. जब मौत का ख्याल आते ही सिहरन अंदर तक दौड़ पड़ती हो. फिर कब और किसने खुदकुशी को बुजदिली से जोड़ दिया?

मगर, क्या किसी ने कभी गौर करने की कोशिश की है कि मौत करीब होने पर मन में कैसे कैसे विचार आते होंगे? मौत कब टपक पड़े कोई नहीं जानता, लेकिन उनका क्या जो अपनी मौत की तारीख, वक्त और जगह तक खुद ही तय कर डालते हैं. आखिर कोई किसान कैसे पूरे होशो हवास में फांसी पर झूलने की तैयारी करता है – और आखिर तक जिम्मेदारियों से नहीं भागता. ‘आसरा’ की कहानी के जरिये लेखक ने उस फीलिंग को, उस मनोविज्ञान को, उस दुविधा को समझने की कोशिश की है तो निर्देशक ने हूबहू स्क्रीन पर उतारने में बड़ी कामयाबी हासिल की है. ‘आसरा’ के निर्माता जयपुर के पवन लाहोटी भी साधुवाद के काबिल हैं, जिसने देश के सामने ऐसे चुनौतीपूर्ण मुद्दे को सामने लाने के लिए निवेश को लेकर कोई हिचकिचाहट नहीं दिखायी. डायरेक्टर संजय के सिंह खुद भी इस बात को मानते हैं.

‘आसरा’ को फाइनल शेप देना आखिर कितना चुनौतीपूर्ण था?

संजय के सिंह बताते हैं, “पहली चुनौती तो एक हाइपर-शॉर्ट स्टोरी को डेवलप करना था. ले देकर दो ट्वीट के बराबर तो स्टोरी थी, जिसके आधार पर पूरा ताना-बाना बुनना था. फिर उस एक्टर की तलाश, जो निर्देशक के आइडिया को सही मायने में स्क्रीन पर उतार सके. मुंबई मे स्टोरीलाइन डिस्कस करते वक्त मैं अमरेंद्र के चेहरे से उसके भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. नतीजा सामने है.”

 ‘आसरा’ किसानों के प्रति मौजूदा धारणा को बदलने में महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी, एक बार देखने के बाद भी अपना परसेप्शन बदलने को मजबूर हो जाएगा. बेहतर तो ये होगा कि किसान आत्महत्या से ग्रस्त इलाकों में हर किसी को ये फिल्म दिखाने के प्रयास हों. ये कभी नहीं भूलना चाहिये कि किसानों के कायर होने का न तो कोई पौराणिक-ऐतिहासिक किस्सा सुनने को मिला है – और न ही कोई मिसाळ।

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