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वाराणसी में तेज बहादुर का नामांकन रद्द होने के बाद भी पीएम मोदी की राह आसान नहीं

नई दिल्ली: बीएसएफ के बर्खास्त सिपाही और गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार बने तेज बहादुर का नामांकन रद्द होने के बाद भले ही लोगों को लग रहा हो कि अब  वाराणसी में पीएम मोदी के सामने चुनौती ख़त्म हो गई है लेकिन ऐसा वास्तव में नहीं है. इस बार 2014 जैसे हालात नहीं है. 2014 से अब बिलकुल अलग हालात हैं. पिछले चुनाव में जब पीएम मोदी यहां आए तो लोगों को उनसे उम्मीदें थीं लेकिन अब पांच साल बाद कुछ ऐसे भी लोगों का सामना करना पड़ेगा जो उनके कामकाज से खुश नहीं है. काशी के लोगों को उनसे बड़ी उम्मीदें थीं.

पीएम मोदी  ने भी उनके इन सपनो को बहुत बड़ा किया था. उन्होंने काशी को क्योटो बनाने का वादा किया था. लेकिन जमीन पर वे सपने हकीकत में कितने बदले इन सवालों का जवाब भी काशी के सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देना होगा. पीएम मोदी ने वाराणसी में कई हज़ार करोड़ रुपये की योजनाएं लेकर आए. बीते 5 सालों में 19 बार वह अपने संसदीय क्षेत्र पहुंचे और कई योजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया लेकिन अभी तक कई काम अधूरे हैं. इनमें सड़क बिजली, पानी, सीवर जैसी मूलभूत समस्याएं भी थी जो वाराणसी के भीतरी इलाके में नहीं सुधर पाई हैं.

शहर के बाहरी हिस्से में रिंग रोड ज़रूर बदला जिसकी वजह से सिंगल रोड वाले बनारस को फोर लेन वाली सड़कें मिल गई हैं. इसके अलावा दूसरी चुनौतियां भी हैं. बनारस में सबसे अधिक बनिया 3.25 लाख है, जो वैसे तो बीजेपी के कोर वोटर माने जाते हैं और 2014 में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग भी लिया था लेकिन इस बार नोटबंदी और जीएसटी से यह नाराज हैं. इसमें बहुत बड़ा एक तबका है जो सामने तो मोदी-मोदी करता है लेकिन भीतर ही भीतर वो नाराज़ है. इसके बाद ब्राह्मणों की संख्या भी ढाई लाख है, जो कभी कांग्रेस का मूल वोटर थे लेकिन साल 1989 से ये वोटर बीजेपी के साथ हैं.

हालांकि इस बीच 2004 में कांग्रेस के राजेश मिश्रा ने इस वोट को अपनी तरफ कर जीत हासिल की थी उसके बाद से ये लगातार बीजेपी के साथ हैं लेकिन इस बार विश्वनाथ कॉरिडोर में ज़्यादातर ब्राह्मणों के ही मकान टूटे हैं लिहाजा ये तबका बेहद नाराज़ है. ये शहर का दक्षिणी इलाका है जिसे बीजेपी की बैकबोन कही जाती है. पर इस बार यही बेहद नाराज़ है जो नुकसान पहुंचा सकता है. बनारस गलियों के साथ घाटों का भी शहर है गंगा के किनारे इन 84 घाटों पर हज़ारों की संख्या में निषाद बिरादरी के लोग रहते हैं. ये बिरादरी 2014 में बड़ी उम्मीद के साथ पीएम मोदी से जुडी थी लेकिन बीते पांच सालों में इन्हे बेहद निराशा मिली.

ये बिरादरी मानती हैं कि इन पांच सालों में वो सबसे ज़्यादा अपनी रोज़ी रोटी को बचाने के लिये संघर्ष करती रही क्योंकि कभी गंगा में क्रूज़ चला कर उनकी जीविका की जो चोट की गई उस पर आंदोलन तो खूब हुआ लेकिन सरकार ने इनकी एक न सुनी. इनकी भी नाराजगी भी इनको झेलनी पड़ सकती है.  निषादों की तरह यादव बिरादरी का भी 1 लाख 50 हज़ार वोट है जो पिछले कई चुनाव से बीजेपी को ही वोट कर रहा था लेकिन इस बार वो अखिलेश यादव के साथ खड़ा नज़र आ रहा है.

दलित 80 हज़ार और मुस्लिम लगभग तीन लाख के आसपास हैं. 2014 के चुनाव में सपा-बसपा अलग-अलग लड़ी थी और मुस्लिम केजरीवाल की तरफ चला गया था जिससे वो 2 लाख 9 हज़ार वोट पाए थे. अब अगर ये वोट एक साथ आते हैं तो एक ऐसी चुनौती बन सकती है जिसे आप नज़रंदाज़ नहीं कर सकते.  साफ़ है कि पीएम मोदी के लिये ये चुनाव जितना आसान दिख रहा है उतना आसान है नहीं और इस बात को पीएम मोदी बखूबी समझते हैं इसीलिए वो कार्यकर्ता सम्मलेन में अपने कार्यकर्ताओं को ज़्यादा से ज़्यादा वोट निकलवाने की अपील कर गए हैं.

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