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जानिए, शिव के इस ज्योतिर्लिंग को आखिर क्यों कहते हैं दक्षिण का कैलाश?

श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर पवित्र श्री शैल पर्वत पर स्थित है, जिसे दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। शिवपुराण के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग शिव तथा पार्वती दोनों का सयुंक्त रूप है। मल्लिका का अर्थ है पार्वती और अर्जुन शब्द शिव का वाचक है। इस प्रकार से इस ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव और देवी पार्वती दोनों की ज्योतियां प्रतिष्ठित हैं।
जहां शिवा संग शिव विराजमान हैं
वे सत्पुरुषों की गति तथा अपने सभी भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं। माना जाता है कि शिव, शिवा सहित आज भी इस पर्वत पर विराजमान हैं।सावन के महीने में यहां पर भारी मेला लगता है। देश-विदेश से शिवभक्त यहां भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर की बनावट तथा सुंदरता बड़ी ही विलक्षण है। सभा मंडप में नंदी जी की विशाल मूर्ति है। मंदिर के निकट ही श्री जगदम्बा जी का भी एक मंदिर है, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है।श्री पार्वती जी यहां ‘ब्रह्मराम्बा’ या ‘ब्रह्मराम्बिका’ कहलाती हैं। कहा जाता है कि यहां माता सती की ग्रीवा (गर्दन) गिरी थी। ब्रह्मा जी ने सृष्टि कार्य की सिद्धि के लिए इनका पूजन किया था। मल्लिकार्जुन मंदिर की वास्तुकला बहुत सुंदर और जटिल है। विशाल मंदिर में द्रविड़ शैली में ऊंचे स्तंभ और विशाल आंगन बनाया गया है, जो कि विजयनगर वास्तुकला के बेहतरीन नमूनों में से एक माना जाता है।जब कार्तिकेय शिव-पार्वती से हुए नाराज
शिव पुराण की कथा है कि श्री गणेश जी का प्रथम विवाह हो जाने से कार्तिकेय जी नाराज होकर माता-पिता के बहुत रोकने पर भी क्रोंच पर्वत पर चले गए। अनेकों देवताओं ने भी कुमार कार्तिकेय को लौटा ले आने की आदरपूर्वक बहुत चेष्टा की, किन्तु कुमार ने सबकी प्रार्थनाओं को अस्वीकार कर दिया। माता पार्वती और भगवान शिव पुत्र वियोग के कारण दुःख का अनुभव करने लगे और फिर दोनों स्वयं क्रोंच पर्वत पर चले गए। माता-पिता के आगमन को जान कर स्नेहहीन हुए कुमार कार्तिकेय और दूर चले गए। अंत में पुत्र के दर्शन की लालसा से जगदीश्वर भगवान शिव ज्योति रूप धारण कर उसी पर्वत पर विराजमान हो गए। उस दिन से ही वहां प्रादुर्भूत शिवलिंग मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात हुआ। शास्त्रों के अनुसार पुत्र स्नेह के कारण शिव-पार्वती प्रत्येक पर्व पर कार्तिकेय को देखने के लिए जाते हैं।अमावस्या के दिन स्वयं भगवान वहां जाते हैं और पूर्णिमा के दिन माता पार्वती जाती हैं।
ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य की लोककथा
एक अन्य कथा के अनुसार इसी पर्वत के पास चन्द्रगुप्त नामक एक राजा की राजधानी थी। एक बार उसकी कन्या किसी विशेष विपत्ति से बचने के लिए अपने पिता के महल से भागकर इस पर्वत पर चली गई। वह वहीं ग्वालों के साथ कंद-मूल एवं दूध आदि से अपना जीवन निर्वाह करने लगी। उस राजकुमारी के पास एक श्यामा गाय थी, जिसका दूध प्रतिदिन कोई दुह लेता था। एक दिन उसने चोर को दूध दुहते देख लिया, जब वह क्रोध में उसे मारने दौड़ी तो गौ के निकट पहुंचने पर शिवलिंग के अतिरिक्त उसे कुछ न मिला। बाद में शिव भक्त राजकुमारी ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया और तब से भगवान मल्लिकार्जुन वहीं प्रतिष्ठित हो गए।
अश्वमेध यज्ञ का मिलता है फल
अनेक धर्म ग्रंथों में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा बताई गई हैं। महाभारत के अनुसार श्री शैल पर्वत पर भगवान शिव-पार्वती का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता हैं। श्री शैल पर्वत के शिखर के दर्शन मात्र से भक्तों के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उसे अनंत सुखों की प्राप्ति होती हैं और वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य इस लिंग का दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और अपने परम अभीष्ट को सदा-सर्वदा के लिए प्राप्त कर लेता है। भगवान शंकर का यह लिंगस्वरूप भक्तों के लिए परम कल्याणप्रद है।

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