सिकंदराबाद। रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन वीके त्रिपाठी शुक्रवार को ट्रेनों को टक्कर से बचाने वाले आटोमेटिक ट्रेन प्रोटेक्शन प्रणाली ‘कवच’ के परीक्षण का हिस्सा बने। इसमें एक ही ट्रेक पर एक ओर से ट्रेन और दूसरी ओर से इंजन को आमने-सामने दौड़ाया गया। लेकिन जैसे एक किलोमीटर का फासला बचा, दोनों में स्वतः ब्रेक लग गए और ट्रेन तथा इंजन जहां के तहां रुक गए।
ट्रेन में रेलवे बोर्ड चेयरमैन के साथ रेलमंत्री स्वयं मौजूद थे। परीक्षण की कामयाबी से प्रसन्न दिख रहे अश्विनी वैष्णव ने कहा कि कवच उच्चतम सुरक्षा प्रदान करता है। दक्षिण-मध्य रेलवे में सफल कार्यान्वयन के बाद अब इसे सबसे पहले दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के हाई डेंसिटी रूटों पर लगाया जाएगा, ताकि इन पर ट्रेनों को 160 किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ाया जा सके। उन्होंने इसे प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत की उपलब्धि बताया।
रेलवे अनुसंधान, विकास एवं मानक संगठन (आरडीएसओ) द्वारा विकसित, भारतीय कंपनियों द्वारा निर्मित तथा दक्षिण-मध्य रेलवे द्वारा परीक्षित कवच का विकास पिछले कई सालों से हो रहा था। लेकिन असली प्रगति पिछले दो सालों में हुई। वर्ष 2019-20 के बजट में 2000 किलोमीटर ट्रैक पर इसे लगाने का ऐलान किया गया था।
तब से अब तक दक्षिण-मध्य रेलवे के 52 स्थानों में लगभग 615 किलोमीटर ट्रैक पर इसे लगाया जा चुका है। जबकि 264 किलोमीटर पर काम शीघ्र पूरा होने की उम्मीद है। इस वर्ष दिल्ली-मुंबई तथा दिल्ली-हावड़ा के बीच 2000 किलोमीटर ट्रैक पर कवच लगाने का प्रस्ताव है।
कवच में रेडियो फ्रीक्वेंसी आईडेन्टिफिकेशन तकनीक का प्रयोग किया गया है। इससे यह सभी जगहों पर सटीकता से कार्य करता है। इसमें मुख्यतः ट्रैक के साथ प्रत्येक किलोमीटर पर आरएफआइडी टैग लगाए जाते हैं। साथ ही ट्रेनो के इंजन में एक डिवाइस लगाई जाती है।
इनके अलावा स्टेशनों पर कम्युनिकेशन टावर भी स्थापित किए जाते हैं। जहां से अल्ट्रा हाई फ्रीक्वेंसी तरंगों के प्रसारण के जरिये ट्रेन की स्थिति व गति का आकलन कर कंप्यूटर द्वारा ऑटोमैटिक ढंग से ट्रेनों को नियंत्रित किया जाता है। टक्कर से बचाने के लिए प्रणाली पहले लोको पायलट को सावधान करने के लिए सायरन बजाती है। यदि उसने ब्रेक नहीं लगाए तो फिर स्वयं ब्रेक लग जाते हैं।
टक्कर के अलावा कवच सिग्नल पार करने तथा आकस्मिक घटनाओं/प्राकृतिक आपदाओं के प्रति भी लोको पायलट को सावधान करने तथा ट्रेन की स्पीड को नियंत्रित करने का काम करता है। इसमें लोको पायलट को केबिन के भीतर स्क्रीन पर सिग्नल दिखाई देता है और सिग्नल पार करने की संभावना पर ट्रेन में ब्रेक लग जाते हैं।
जबकि कमजोर पुल या पटरी होने पर रफ्तार कम कर देती है। रेलमंत्री ने कहा यह कुहरे के मौसम में सुरक्षा की गारंटी है। इसलिए विकसित देश भी इसकी मांग कर रहे हैं और हम इसका निर्यात करेंगे।
रक्षा कवच सिस्टम आइसीडी के मुकाबले महंगा, लेकिन टीपीडब्लूएस की बनिस्बत काफी सस्ता है। इसमें प्रति किलोमीटर 50 लाख रुपये का खर्च आता है। जबकि टीपीडब्लूएस का खर्च प्रति किलोमीटर 2 करोड़ रुपये है। इसीलिए सरकार ने रक्षा कवच को भारत के लिए उपयुक्त पाया है।
इससे पहले कोंकण रेलवे ने एंटी कोलिजन डिवाइस (एसीडी) नाम से ऐसी ही किंतु इससे भी किफायती प्रणाली विकसित की थी। लेकिन बाद में कुछ खामियों के कारण उसे पूरी तरह अपनाया नहीं जा सका। इसके बाद विदेशी आक्जिलरी वार्निंग सिस्टम (एडब्लूएस) तथा यूरोपीय ट्रेन प्रोटेक्शन वार्निंग सिस्टम के परीक्षण हुए।
अंततः स्वदेश में विकसित ट्रैन कोलिजन अवाइडेन्स सिस्टम को उपयुक्त पाया गया। लेकिन किफायत के साथ पूर्ण सुरक्षा के पैमानों पर कोई प्रणाली खरी नहीं उतरी। इसलिए और काम करते हुए अंततः उसे कवच के रूप में पूर्णतया सुरक्षित व किफायती स्वदेशी प्रणाली घोषित किया गया है।